Sunday, May 27, 2007

आँखें

जैसे रेगिस्तान में मृग-तृष्णा को देख कर दृष्टि-भ्रम होता है,
मेरे बुलाने पर उस बच्चे कि आंखों में कुछ ऐसी ही चमक थी।
मैंने उसे पास बुलाया,
बोला :
क्यों माँगते हो, क्यों नहीं पढने तुम जाते हो ?
क्या तुम्हें अच्छा लगता है, भीख-माँगना !
वोही आंखें, इस बार फिर उठीं,
पर घृणा और द्वेष से,
बोला साब, क्या पदायेंगे मुझे आप,
इस गरीब को दो वक़्त का भोजन दे पायेंगे आप,
भाषण दे दो, अपना क्या जाता है ?
उस भाषण को यथार्थ बनाने में दिल क्यों घबराता है !
सारे समर्थों का प्रतिनिधि मैं
शर्म से आंखें भी नहीं झुकीं,
वोही आंखें थी अब भी मुझ पर रुकीं,
मैंने जेब से एक सिक्का निकाला...... दिया,
और उस बच्चे कि आंखें एक नयी रौशनी को
ढूंढने को मुड़ गयी !


-आशुतोष

1 comment:

Sanjeev said...

great! jio mere kavi...jio..aesi kuch aur kavitaein likho..mujhe pata tha ki tu sahi main ek din mera naam roshan karega...from now onwards you would be called as Ashu the Nirala..